प्रह्लाद महाराज की कथा, प्रह्लाद महराज ने क्या शिक्षाएं दीं?

भक्त प्रह्लाद की कथा

प्रह्लाद महराज हिरण्यकशिपु के पुत्र थे । दो भाई थे हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष । भगवान विष्णु ने वराह का अवतार लेकर हिरण्याक्ष का वध कर दिया था और तभी से हिरण्यकशिपु विष्णु भगवान को अपना शत्रु मानने लगा । हिरण्यकशिपु ने भगवान विष्णु से युद्ध करने का निश्चय किया । उसने ब्रह्मा जी की तपस्या करनी शुरू कर दी ताकि वह अमर हो सके और भगवान विष्णु से युद्ध करने के लायक बन सके ।

हिरण्यकशिपु ने ब्रह्मा जी से क्या वरर्दान मांगे

हिरण्यकशिपु ने ब्रह्मा जी को प्रसन्न कर लिया और अमरता का वरदान माँगा । ब्रह्मा जी ने कहा कि अमर तो हम भी नहीं हैं कुछ और मांग लो । हिरण्यकशिपु ने वरदान माँगा कि न मैं दिन में मरुँ ना रात में ।

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बाहर मरुँ न भीतर, ऊपर मरुँ ना नीचे, अस्त्र से मरुँ ना शास्त्र से, 12 महीनो में किसी महीने में ना मरुँ, ना पशुओं से मरुँ ना मनुष्य से मरुँ । ब्रह्मा जी ने वरदान देकर कहा तथास्तु । गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि संसार में ऐसा कोई नहीं जिसे पद मिल जाए और उसको इस बात का घमंड ना आये ।

हिरण्यकशिपु भी घमंड में आ गया और उसने घोसणा कर दी कि वह भगवान है और सभी उसी की पूजा करेंगे । हिरण्यकशिपु के चार पुत्र थे और सबसे पहले पुत्र का नाम था प्रह्लाद । प्रह्लाद महाराज जब गर्भ में थे तभी से उनके ऊपर भगवान की कृपा थी । प्रह्लाद महाराज कुछ समय में बड़े हुए और गुरुकुल जाने लगे ।

हिरण्यकषिपु ने प्रह्लाद महराज से पूछा कि तुमने गुरुकुल में आज क्या सीखा । प्रह्लाद महराज ने कहा कि गृहस्थ जीवन एक अँधा कुआँ है जिसमे जाने वाला कभी वापिस नहीं लौटता । पिताजी सब कुछ बेकार है केवल भगवान का भजन ही सार है । हिरण्यकशिपु को क्रोध आ गया और वह गुरुकुल गया । गुरु जी से कहा कि मेरे बेटे को मेरे दुश्मन की भक्ति सिखाते हो, आगे से ऐसा किया तो गर्दन काट दूंगा ।

अगली बार गुरु जी ने प्रह्लाद महराज से कहा कि आपके पिता जी की पूजा करो वही भगवान हैं । प्रह्लाद महाराज ने कहा कि भगवान तो विष्णु हैं, पिता जी तो पिता जी ही हैं भगवान कैसे हो सकते हैं क्यूंकि कोई भी जीव भगवान नहीं बन सकता ।

कुछ दिन प्रह्लाद महराज गुरुकुल में चुप रहे तो गुरु जी को लगा कि अब वे भगवान की भक्ति नहीं करते इसलिए उनको घर भेज दिया । घर आने पर जब हिरण्यकशिपु ने पूछा कि आपने गुरुकुल में क्या सीखा तो प्रह्लाद महाराज ने नवधा भक्ति का उपदेश दिया ।

नवधा भक्ति किसी कहते हैं

उन्होंने कहा कि पिता जी मेने नवधा भक्ति में 9 प्रकार की भक्ति सीखी । पहली भक्ति है संतों का संग । श्रवणम कीर्तनम विष्णु स्मरणम पादसेवनं अर्चनं वन्दनं दास्यम सख्यं और आत्मनिवेदनाम । दूसरी भक्ति है भगवान की कथा में प्रेम हो जाना ।

100 काम छोड़कर भोजन करो, 1000 काम छोड़कर स्नान करो । एक लाख काम छोड़कर दान दो और करोड़ काम छोड़कर गोविन्द की कथा सुनो । तीसरी भक्ति है गुरु के चरणों की सेवा है, चौथी भक्ति है भगवान का गुणगान मुक्त कंठ से करना । पांचवी भक्ति है राम जी के मंत्र पर विश्वास करके भगवान का भजन करना ।

छल को छोड़कर जो संतों का संग करता है वह भगवान की छठवीं भक्ति पा जाता है । सातवीं भक्ति है सबमें राम जी के दर्शन करना । आठवीं भक्ति है संतोष, जो मिल गया राम जी की कृपा ऐसा समझना और उसी में संतुष्ट रहना । महाराज धीरेन्द्र कृष्ण शस्त्री जी का सूत्र है जो प्राप्त है वही पर्याप्त है । जो स्वपन में भी दूसरे के दोषों को नहीं देखता वह राम जी की आठवीं भक्ति को पा जाता है ।

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राम जी की नौंवी भक्ति है राम जी के भरोसे के अलावा किसी दूसरे का भरोसा नहीं करना । राम भगवान सबरी जी से कहते हैं कि इन 9 में से अगर किसी के जीवन में कोई एक भक्ति भी होती है तो वह मुझे अतिशय प्रिय लगता है । हिरण्यकशिपु क्रोध से व्याकुल हो गया और गुरु जी के पास जाकर बोला कि यह सब क्या सिखा रहे हो मेरे बेटे को । गुरु जी बोले कि आपका यह लड़का सब कुछ गर्भ से ही सीख कर आया है । इसके बाद गुरु जी प्रह्लाद महाराज को गुरुकुल ले गए ।

प्रह्लाद महराज ने अपने सहपाठियों को क्या शिक्षा दी

एक दिन गुरु जी बहार गए थे तो प्रह्लाद महराज ने सभी शिष्यों को बुलाया और उन्हें शिक्षा दी कि देखो भैया बड़ी मुश्किल से मनुष्य का तन मिलता है इसलिए सभी गोविन्द के भजन गाओ । शिष्यों ने कहा कि पागल हो क्या तुम्हारे पिता को पता चला तो हम गए समझो । प्रह्लाद महाराज ने कहा कि चिंता मत करो रक्षा करने गोविन्द आएंगे । इसके बाद सभी गोविन्द के भजन गाने लगे । घनश्याम राधे राधे हे श्याम राधे राधे, हे निकुंज में बिराजे घनश्याम राधे राधे ।

हिरण्यकशिपु इतने में गुरुकुल आ गया और उसने देखा कि सभी भगवान का भजन कर रहे हैं तो उसने गुरु जी को डांटा । गुरु जी शिष्यों को रोकने गए तो उनपर ऐसा असर हुआ कि वे भी भगवान का भजन गाने लगे । हिरण्यकशिपु ने एक मंत्री को भेजा और वह भी जब प्रह्लाद महाराज के पास गया तो दोनों हाथ उठाकर भजन गाने लगा ।

इसके बाद हिरण्यकशिपु ने सिपाहियों को भेजा और वे भी भजन गाने लगे । हिरण्यकशिपु चिल्ला कर बोला कि रुक जाओ तो सभी रुक गए । हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद महराज को रोककर कहा कि तुम्हारे भगवान कहाँ हैं । प्रह्लाद महाराज ने कहा कि पिताजी भगवान सब जगह हैं ।

हिरण्यकशिपु ने गुस्से में आकर प्रह्लाद महराज को एक खंबे से बाँध दिया । उसने कहा कि अगर तुम्हारे भगवान सभी जगह हैं तो तुम्हें बचाएंगे और अगर भगवान नहीं हैं तो तुम्हे कोई बचाने नहीं आयेगा ।

अगर किसी को गुरु के ऊपर और भगवान के ऊपर विश्वास है तो कोई संकट उसका बाल बांका नहीं कर सकता । ज्यादातर लोगों का विश्वास तो होता है लेकिन दो पक्षी होता है कि बचेंगे या मर जायेंगे और ऐसा व्यक्ति अक्सर मर जाता है । हिरण्यकशिपु ने जैसे ही प्रह्लाद महराज को मारने के लिए तलवार निकाली उसी समय भयंकर गड़गड़ाहट होने लगी पृथ्वी कांपने लगी और भगवान नरसिंह प्रकट हो गए ।

नरसिंह भगवान ने हिरण्यकशिपु को किस तरह मारा

हिरण्यकशिपु को भगवान ने युद्ध में हरा दिया और घर की देहरी पर ले जाकर अपनी जंघा पर लेटा दिया । हिरण्यकशिपु भगवान से बोला कि आप मुझे मगर नहीं सकते क्यूंकि मुझे वरदान प्राप्त है कि मैं न अंदर मरूंगा ना बाहर, भगवान बोले न तुम अंदर हो न बाहर घर की देहरी पर हो । हिरण्यकशपु बोला कि दूसरा वरदान है कि न मैं दिन में मरूंगा न रात मैं ।

भगवान ने कहा कि न दिन है न रात शाम का समय है । हिरण्यकशिपु बोला कि तीसरा वरदान भी है कि न मैं नीचे मरूंगा न ऊपर भगवान बोले तुम मेरी जंघा पर बैठे हो न ऊपर हो न नीचे । हिरण्यकशिपु फिर कहता है कि चौथा वरदान भी है कि न मैं अस्त्र से मरूंगा न शस्त्र से । भगवान ने अपने नाखून दिखाकर कहा कि तुम्हारे लिए यही काफी हैं । हिरण्यकशिपु बोला तब भी मार नहीं सकते क्यूंकि पांचवा वरदान है कि न मैं नर से मरूंगा न पशु से ।

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भगवान ने कहा कि में आधा नर हूँ आधा सिंह हूँ । हिरण्यकशिपु को लगा कि अब तो मरना ही है लेकिन उसने कहा कि एक वरदान और प्राप्त है कि 12 महीनो में से किसी महीने में नहीं मरूंगा । भगवान ने कहा कि यह अतिरिक्त माह केवल तेरे लिए ही बनाया है और इतना कह कर भगवान ने हिरण्यकशिपु का वध कर दिया ।

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