लंका को असल में हनुमान जी ने नहीं जलाया था

लंका को असल में किसने जलाया

सुंदर काण्ड में लंका हनुमान जी ने जलाई उसके भी चार कारण हैं । हनुमान जी जब लंका जलाकर राम ने के पास गए तो राम जी एक शिला पर बैठे थे और बाकी सभी बानर भी बैठे थे । हनुमान जी सबसे पीछे जाकर बैठ गए और आगे बाकी बानर और जामवंत जी बैठे थे ।

पराई स्त्री को चौथ के चंद्रमा की तरह त्याग देना चाहिए । चौथ का चंद्रमा देखा नहीं जाता नहीं तो बिना कोई पाप किए कलंक लगता है । इसलिए परनारी से ने और आसक्ति की जिज्ञासा त्याग देने चाहिए क्योंकि इससे रावण जी भी बच नहीं पाए तो हम तुम किस खेत की मूली हैं ।

जीवन की पहली अवस्था में ज्ञान प्राप्त करो, दूसरी अवस्था में धन अर्जित करो और, तीसरी अवस्था में धर्म अर्जित करो और अगर तीन अवथाओं में आप यह अर्जित नहीं कर पाए तो चौथे चरण में आप किसी काम के नहीं हैं ।

जानकी जी ने रावण को तिनका जलाकर डरा दिया था । किसी की भी हिम्मत नहीं की जानकी जी की तरफ दूसरी दृष्टि से देख ले । लक्ष्मण जी जो हमेशा राम जी साथ रहने वाले हैं वो भी हमेशा माता सीता के केवल चरण ही देखे । जब हनुमान जी चूड़ामणि लेकर आए तो राम जी ने लक्षण जी से पूछा कि इन्हें पहचानो क्या ये तुम्हारी भाभी मां के हैं ।

लक्ष्मण जी ने कभी सीता माँ को पैरों से ऊपर नहीं देखा

लक्ष्मण जी ने कहा कि क्षमा कीजिए परंतु मेने कभी जानकी जी को मुख की तरफ नहीं देखा । लक्ष्मण जी जानकी जी के चरण ही देखे इसलिए उन्होंने कहा कि अगर जानकी जी के चरणों का कोई आभूषण उन्हें दिया जाए तो वे जरूर पहचान लेंगे ।

राम जी ने जामवंत जी से पूछा कि लंका से खबर कौन लाया तो उन्होंने कहा कि हनुमान जी ने । हनुमान जी को राम की ने बुलाया तो उनकी आंखों में आंसू आ गए । राम जी ने बोला कि रो क्यों रहे हैं लंका तो आप है गए थे । हनुमान जी ने कहा कि लंका में नहीं गया यह सब तो आपका प्रताप है ।

राम जी ने कहा कि आप जरूर कह रहे हैं लेकिन समुद्र तो पर आप ही किए हम तो नहीं लिए । बानर बोले हां आप ही समुद्र पार गए । हनुमान जी ने कहा कि नहीं हम अपने बाल पर नहीं गए आपने जो मुद्रिका दी थी उसमे आपका नाम राम लिखा था इसलिए हम समुद्र लांघ गए ।

राम जी ने कहा कि ठीक है मगर लंका तो आपने ही जलाई । हनुमान जी ने कहा कि नहीं लंका हमने नहीं जलाई हम तो अशोक के पेड़ के ऊपर छिपे बैठे थे आपने ही त्रिजटा के द्वारा संदेश भेजा कि बानर ने सपने में लंका जला दी । जिसने सपना दिया वो जाने ।

हनुमान जी ने कहा कि लंका में आग किसी और ने लगायी

हनुमान जी ने कहा कि लंका हमने नहीं जलाई चार लोगों ने जलाई । हनुमान जी ने कहा कि सीता के संताप ने, आपके प्रताप ने, रावण के पाप ने और मेरे बाप ने । जामवंत जी ने पूछा कि आपके बाप वहां केसे पहुंच गए । हनुमान जी ने कहा कि हमने तो एक ही घर में आग लगाई थी लेकिन उसी समय 49 प्रकार की हवा चली जिससे पूरी लंका में आग फेल गई ।

राम ने बोले कि नहीं आपने ही लंका जलाई । हनुमान जी ने कहा कि नहीं मेने नहीं जलाई पूछ ने जलाई । पूछ हमारी नहीं है प्रभु श्री राम की है । बंदर को भला पूछता कौन है श्री राम जी से ही है पूछ हमारी । हनुमान जी कहना चाहते हैं कि पूछ हैं पार्वती, बानर का रूप है शिव ।

जब भगवान का अवतार होना था तो सभी देवता अयोध्या मे अवतार ले रहे थे तो शिव जी भी आने लगे तो पार्वती जी ने पूछा कि प्रभु कहां जा रहे हैं । शंकर जी ने कहा कि वो बंदर बनेंगे । पार्वती जी ने कहा कि हम बंदरिया बन जायेंगे । शिव जी ने कहा कि नहीं गड़बड़ है गणेश जी को फिर कौन देखेगा इसलिए आप यहीं रहिए ।

शंकर जी ने कहा कि वे राम जी के साथ रहेंगे और वहीं राक्षसों का संघार करेंगे । पार्वती जी ने बोला की हम भी चलेंगे, शंकर जी ने कहा कि नहीं हम अकेले जाएंगे क्योंकि हम इस बार ब्रह्मचारी के रूप में जायेंगे । पार्वती जी ने कहा कि आप बंदर बन जाओ और हम पूंछ बन जाते हैं ।

हनुमान जी ने कहा कि वे जानकी जी के चूणामणि के कारण समुद्र को लांग पाए

सती जी ने पार्वती जी का अपराध किया था इसलिए अब पार्वती के रूप में पूछ के रूप में आग लगाकर सीता जी से क्षमा मांग रही हैं । हनुमान जी ने कहा कि इसलिए उन्होंने लंका नहीं जलाई ।

राम जी ने कहा कि आप वापिस केसे आए, यह तो आपका बल ही है । हनुमान जी ने वह चूनामणि दिए जो जानकी जी ने उनको दिए थे । हनुमान जी ने कहा कि जानकी जी के चूड़ामणि के बल पर ह वे वापिस आए इसमें उनका कोई बल नहीं है ।

राम जी ने कहा कि यह सब ठीक है लेकिन लंका में तो आपने अपने है बल पर पाश को तोड़ा और लड़ाई तो आपने ही लड़ी । हनुमान जी ने कहा कि से सब तब प्रताप रघुराई, नाथ ना कछु मोरी प्रभुतायी । हनुमान जी कहते हैं कि यह सब आपका प्रताप है हमारा कुछ प्रताप नहीं । महराज धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री जी का कहना है कि जीवन का का सार हैं प्रभु श्री राम । भगवद प्रेम ही जीवन का सार है ऐसा महाराज धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री जी का कहना है ।

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