दुर्योधन और कर्ण की मित्रता

पिछले पोस्ट में हमने पड़ा कि किस तरह कुरुवंशी राजकुमारों ने द्रोणाचार्य के आश्रम में धनुर्विद्या सीखी और रंगशाला में उसका प्रदर्शन किया । इस पोस्ट में हम आगे की कहानी जानेंगे । अगर आपने पिछली पोस्ट नहीं पड़ी है तो यहां क्लिक करके पड़ सकते हैं – द्रोणाचार्य का गुरुकुल । इसी तरह की धार्मिक जानकारी पड़ते रहने के लिए हमारा व्हाट्सएप ग्रुप ज्वाइन कर सकते हैं । ग्रुप ज्वाइन करने के लिए यहां क्लिक करें – WhatsappGroup

दुर्योधन और कर्ण की पहली मुलाकात

जब अर्जुन अपनी कलाओं का प्रदर्शन कर रहे थे तभी अचानक ने कर्ण ने रंगशाला में प्रवेश किया । सब अर्जुन की प्रशंसा करने मे जुटे थे लेकिन कर्ण ने आकर सबको शांत कर दिया और बड़े ही अहंकार भरे वाचनो से अर्जुन की आलोचना शुरू कर दी ।

कर्ण ने कहा कि इस तरह की कलाएं तो बच्चे दिखाया करते हैं इनमें प्रशंसा करने की क्या जरूरत है । इसके बाद कर्ण ने भी वही सारे हुनर सबको दिखाए जो अर्जुन ने दिखाए थे । सभी कर्ण के घमंड को देखकर परेशान थे लेकिन दुर्योधन और उसके पक्ष के कुछ लोग इस बात से बड़े ही प्रसन्न हुए । जब कृपाचार्य ने कर्ण से बात की तो उससे उसका कुल पूछा ।

कर्ण ने बताया कि वह एक सूत पुत्र है ( सूत पुत्र उनको कहते हैं जिनकी माता और पिता का वर्ण अलग अलग होता है, जैसे अगर किसी के पिता ब्रह्मण हों और माता वैश्य तो उसे सूत पुत्र कहा जाता है ) । वैदिक सभ्यता में सूत पुत्र को निम्न जाती से भी निम्न माना जाता है ।

कृपाचार्य ने कर्ण से कहा कि यह रंगशाला केवल राजकुमारों के लिए है और इसमें कर्ण अपना कौशल नहीं दिखा सकते । असल में ऊंची जाति और नीची जाति का भेद कृपाचार्य के मन में नहीं था लेकिन कर्ण के घमंड को देखते हुए उन्होंने यह बात कही ।

कर्ण के गुण दुर्योधन से मिल रहे थे और आपने यह तो सुना ही होगा कि समान स्वभाव वाले लोगों में मित्रता जल्दी होती है । साथ ही दुर्योधन यह सोचा करता था कि उनके पक्ष में कोई धनुर्धर नहीं है जो अर्जुन को टक्कर दे सके ।

जब कर्ण का अपमान हो रहा था तभी दुर्योधन ने खड़े होकर उसका पक्ष लेना शुरू कर दिया । दुर्योधन ने कर्ण को अंग देश का राजा बना दिया और कहा कि अब कर्ण इस रंगशाला में हिस्सा ले सकता है क्यूंकि अब वह एक सूत पुत्र के साथ साथ राजा भी हैं ।

कर्ण को कोई और नहीं पहचान पाया लेकिन कुंती महारानी ने उसके कवच और कुंडल देखकर तुरंत ही पहचान लिया कि वह कुंतीपुत्र है जिसे कुंती ने नदी में बहा दिया था ।

द्रुपद का घमंड हुआ चूर चूर

रंगशाला के बाद गुरुदक्षिणा की बारी आई । गुरु द्रोणाचार्य ने गुरुदक्षिणा मे पांचाल नरेश द्रुपद को बंधी बनाकर लाने को कहा । दोनो पक्ष कौरव और पांडव पांचाल नरेश को पकड़ने के लिए आगे बड़ गए और साथ में द्रोणाचार्य भी गए हुए थे ।

अर्जुन ने द्रोणाचार्य से कहा कि कौरवों को पहले जाने दें ताकि उन्हें समान अवसर मिले क्योंकि अगर पांडव पहले जाएंगे तो फिर किसी और को जाने का मौका नहीं मिलेगा । दोनो पक्ष साथ मे जा नहीं सकते थे क्योंकि इनकी आपस मे बिलकुल भी नहीं बनती थी ।

कौरव सबसे पहले गए और द्रुपद के सैनिकों ने ही इन्हें पीटकर वापिस भागा दिया । द्रुपद तक तो ये पहुंच ही नहीं पाए उसे बंधी क्या बना पाते । कौरवों की पांडवों से तो बनती नहीं थी साथ ही उनकी आपस में भी एक दूसरे से नहीं बनती थी ।

जब इस तरह बिना सामंजस्य के उन्होंने युद्ध लड़ा तो विपक्ष ने इसका फायदा उठाकर इन्हे ढेर कर दिया । ध्यान देने वाली बात है कि कौरवों के साथ कर्ण भी था जो खुद को अर्जुन से बेहतर बताया करता था लेकिन अति सीघ्र परास्त होकर वापिस आ गया । कर्ण ने इसी कितनी ही बार मुहकी खाई लेकिन वह कभी नहीं समझा ।

जब पांडवों की बारी आई तो वे बिजली की तरह द्रुपद की सेना को चीरते हुए सीधे द्रुपद के पास पहुंचे और उसे पकड़कर द्रोणाचार्य के चरणों में डाल दिया । पांडवों में सबसे आगे भीम चल रहे थे जो बड़े बड़े हाथियों और घुड़सवारों को रास्ते से हटा दिया करते थे । भीम के पीछे अर्जुन थे जो हजारों सैनिकों को एक साथ धराशाई कर दिया करते थे । सबसे पीछे युधिस्ठिर थे जो पीछे से हो रहे आक्रमणों को संभालते थे और अगले बगल नकुल और सहदेव थे जो तलवार को मशीन की तरह चलाकर रास्ता साफ कर रहे थे ।

द्रुपद का राज्य अब द्रोणाचार्य का हो चुका था और द्रुपद एक भिखारी बन गए थे । असल में द्रुपद और द्रोणाचार्य एक ही गुरुकुल में पड़ा करते थे और अच्छे मित्र भी हुआ करते थे । द्रुपद ने द्रोणाचार्य को बोल रखा था कि अगर उन्हें कोई भी जरूरत पड़े तो द्रुपद उनकी मदद करेंगे क्योंकि द्रुपद एक राजकुमार हैं और भविष्य में उन्हे राजा बनना है । गुरुकुल से निकलकर ऐसा ही हुआ, द्रुपद एक राजा बन गए और द्रोणाचार्य एक ब्राह्मण के रूप में शिक्षक बनकर जीवन यापन करने लगे ।

द्रोणाचार्य एक ब्राह्मण थे और संतुष्ट रहा करते थे इसलिए उन्हें द्रुपद के यहां जाने की कोई जरूरत नहीं पड़ी लेकिन जब इनके पुत्र अश्वत्थामा को एक दिन दूध नहीं मिला तब पुत्र मोह में आकर इन्होंने द्रुपद से मदद मांगी । द्रुपद के यहां जाकर उन्होंने उससे एक गाय मांगी ताकि वे अपने बेटे को दूध पिला सकें ।

द्रुपद ने गाय देने से मना कर दिया और द्रोणाचार्य का अपमान करते हुए कहा कि मित्रता तो बराबरी वालों में हुआ करती है । यहां तो द्रुपद एक राजा हैं और द्रोणाचार्य एक भिक्षुक, भला दोनो में मित्रता केसे हो सकती है । द्रोणाचार्य ने इस समय कुछ नहीं किया लेकिन द्रुपद को सबक सिखाने की मन में ठान ली । समय आने पर द्रोणाचार्य ने द्रुपद से अपना प्रतिशोध लेने के लिए उसे पांडवों से बंधी बनवा लिया ।

द्रोणाचार्य ने द्रुपद को आधा राज्य वापिस कर दिया और आधा राज्य अपने पास रख लिया । तब दोबारा द्रोणाचार्य ने द्रुपद की तरफ मित्रता का हाथ बढ़ाते हुए कहा कि अब हम दोनो ही राजा हैं और अब हममे दोस्ती हो सकती है । द्रुपद ने हामी भर दी लेकिन अंदर ही अंदर वह द्रोणाचार्य द्वारा अपने अपमान को भूल नहीं पा रहा था ।

आगे चलकर यह सवाल खड़ा हुआ कि आखिर राजा किसे बनाया जाए । एक और महाराज युधिस्ठिर थे और दूसरी और दुर्योधन । अब दुर्योधन की उम्र भी कम थी और गुण भी युधिस्ठिर की तुलना में कम ही थे लेकिन कुटिलता में उसका कोई जवाब नहीं था। राजा बनने के लिए वह तरह तरह की साजिश रचने लगा । आगे की कहानी पड़ेंगे अगले पोस्ट में । अगली पोस्ट की जानकारी पाने के लिए हमारा व्हाट्सएप ग्रुप ज्वाइन करें । व्हाट्सएप ग्रुप ज्वाइन करने के लिए यहां क्लिक करें – WhatssappGroup ।