अभी तक हमने पड़ा किस तरह पांडवों को द्रोपदी के स्वयंवर के बारे में पता चला । अगर आपने पिछला पोस्ट नहीं पड़ा है तो आगे क्लिक करके पड़ सकते हैं – पांडव दुर्योधन से छिपकर कहां गए ।
पांडव द्रोपदी के स्वयंवर की ओर बड़ गए
व्यासदेव के आदेश पर पांचों पांडव रात के समय ही पांचाल की ओर बड़ गए । रास्ते मे उन्हें एक गंधर्व चित्ररथ मिला जो एक तालाब मे विचरण कर रहा था । गंधर्व ने कहा कि दिन का समय मनुष्यों के लिए होता है और रात का समय गंधर्वों तथा दैत्यों के लिए इसलिए पांडवों को उसके पास नहीं आना चाहिए था । उसने तुरंत ही पांडवों पर हमला कर दिया और अर्जुन ने रक्षात्मक प्रतिक्रिया में कुछ ही समय में उसे हरा दिया । उस गंधर्व की पत्नी युधिस्ठिर महाराज से उसके प्राणों की भीख मांगने लगी ।
महाराज युधिस्ठिर ने चित्ररथ के प्राण दान दिए और वह बदले में अर्जुन को चक्षुसी विद्या देने के लिए व्याकुल था लेकिन अर्जुन ने माना कर दिया । तब उस गंदर्भ ने कहा कि बदले में अर्जुन उसे आग्रेयास्त्र दे दें तब अर्जुन ने उसकी बात मान ली थी । चित्ररथ ने पांडवों को उनके वंश की एक कहानी भी सुनाई थी । पांडव कुरु वंश से थे । राजा कुरु के पिता संवरण और सूर्य की पुत्री तपती का विवाह केसे हुआ यह कहानी गंधर्भ ने पांडवों को बड़े विस्तार से सुनाई थी ।
गंधर्व ने पांडवों को वशिष्ठ मुनि की कहानी भी सुनाई थी जिससे पांडवों को यह समझ में आ गया था कि किसी भी राजा के लिए एक पुरोहित का होना अत्यंत महपूर्ण है । अर्जुन ने गंदर्भ चित्ररथ से ही पूछा था कि उनके लिए योग्य पुरोहित कौन होगा । तब चित्ररथ ने बताया था कि उनके लिए योग्य पुरोहित धौम्य मुनि हो सकते हैं जो इस समय तपस्या कर रहे हैं । पांडव धौम्य मुनि के पास गए और उनसे पांडवों का पुरोहित बनने की बात कही । मुनि ने उनकी बात स्वीकार कर ली । धौम्य मुनि से आज्ञा लेकर पांडव पांचाल की और बड़ गए ।
द्रोपदी का स्वयंवर
राजा द्रुपद की भी यही इच्छा थी कि उनकी पुत्री द्रोपदी का विवाह अर्जुन के साथ हो जाए । साथ ही द्रुपद को यह भी विश्वास था कि पांडव जेसे महाबली लक्षाग्रह में जलकर नहीं मर सकते । अर्जुन को स्वयंवर जिताने के लिए राजा द्रुपद ने एक ऐसा धनुष मंगवाया था जिसपर केवल अर्जुन और भीष्म जैसे महाबली ही प्रत्यंचा चढ़ा सकते थे ।
स्वयंवर मे दुर्योधन अपने भाइयों तथा कर्ण के साथ आया हुआ था । भगवान कृष्ण और बलराम भी आए हुए थे । देवी देवता भी आकाश से यह स्वयंवर देख रहे थे और कई सारे राजा वहां पर मोजूद थे । स्वयंवर में यह शर्त रखी गई थी कि जो भी धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा कर घूमते हुए लक्ष की आंख भेद देगा उसी के साथ द्रोपदी का विवाह संपन्न होगा ।
सबसे पहले दुर्योधन आया लेकिन कुछ कर नहीं पाया । अपने मित्र की यह हालत देखकर कर्ण ने आकर उस धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा दी थी लेकिन इससे पहले की वह निशाना लगता द्रोपदी ने सबके सामने यह कह दिया था कि वे किसी सूत पुत्र को अपना पति नहीं चुनेगी । दरअसल द्रोपदी जानती थीं कि कर्ण की संगति दुर्योधन केसे व्यक्तियों की है और जैसी व्यक्ति की संगति होती है वैसा ही वह व्यक्ति भी हो जाता है । इसलिए द्रोपदी ने सूत पुत्र के बहाने कर्ण को टाल दिया था ।
तब कर्ण क्रोध से व्याकुल होकर वहां से चला गया था । इसके बाद अर्जुन ने द्रुपद से निशाना लगाने की आज्ञा मांगी थी । द्रुपद ने आज्ञा दे दी थी और अर्जुन ने तुरंत ही धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा कर निशाना लगाना चाहा था लेकिन स्वयंवर के नियम के अनुसार निशाना पानी में लक्ष्य की परछाई को देखकर लगाना था और पानी शांत नहीं हो रहा था ।
पानी के शांत न होने से उसमे लक्ष्य की परछाई ठीक से नहीं दिख रही थी । तब अर्जुन ने भगवान कृष्ण की और देखा तो भगवान मुस्कुरा रहे थे और अगले ही क्षण जब अर्जुन ने पानी की ओर देखा तो वह शांत था । अर्जुन ने परछाई देखकर तुरंत ही निशाना लगा दिया ।
सब हैरान रह गए कि एक ब्राह्मण ने ऐसा केसे कर दिया । भगवान कृष्ण के अलावा वहां अर्जुन को कोई भी पहचान नहीं सका था । राजा द्रुपद ने द्रोपदी का विवाह ब्राह्मण के भेष में अर्जुन से कराने का फैसला किया । जब अर्जुन और बाकी पांडव द्रोपदी सहित वहां से जाने लगे तो दुर्योधन सहित सभी राजनों ने द्रुपद पर हमला कर दिया । राजाओं का कहना था कि द्रुपद ने अपनी बेटी की शादी एक ब्रह्मण से करके गलत किया है इसलिए हमें उसे मार डालना चाहिए ।
द्रुपद ब्राह्मणों के भेष में छिपे उन पांडवों की शरण में आ गए थे । तब अर्जुन और भीम ने इन सभी राजाओं से युद्ध करके उन्हें हरा दिया था । इसके बाद भगवान श्री कृष्ण ने दोनो पक्षों मे संधि करवाते हुए कहा था कि इस ब्राह्मण ने कुछ अनुचित नहीं किया है । एक प्रतियोगिता थी जिसमे सबको समान अधिकार था और योग्यता के आधार पर ही इस ब्राह्मण ने इसे जीता है ।
उधर जब पांडव द्रोपदी को लेकर अपने छिपने के स्थान पर पहुंचे । पांडव द्रुपद के राज्य में एक कुम्हार के घर मे रहा करते थे और भिक्षा मांगकर अपना जीवन यापन किया करते थे । इस रोज उन्होंने वापिस आकर माता कुंती से कहा कि उन्हें भिक्षा में कुछ मिला है । माता कुंती ने बिना देखे ही कह दिया की जो भी लाए हो आपस मे बांट लो । पांडवों ने सोचा कि द्रोपदी को लांचो में केसे बांटा जा सकता है । तब पांडवों को व्यास देव की कही बात याद आई कि किस तरह द्रोपदी को पिछले जन्म में पांच पति की प्राप्ति का वरदान मिला था ।
पांडव विचार कर ही रहे थे कि तभी वहां भगवान कृष्ण और बलराम आए । भगवान कृष्ण ने द्रोपदी का विवाह पांचों पांडवों से कराने के लिए सहमति दी । भगवान ने ही अर्जुन को स्वयंवर जिताया था । दरअसल अर्जुन का तीर लक्ष्य की आंख की तरफ नहीं जा रहा था लेकिन भगवान ने उसकी दिशा बदल दी थी ताकि अर्जुन प्रतियोगिता जीत सकें ।
किसी को पता न चले कि पांडव ब्राह्मण के भेष में छिपे हैं इसलिए भगवान जल्दी ही उनसे भेंट करके वापिस चले गए । उधर धृष्टद्युम्न पांडवों का पीछा करते करते उस कुम्हार के घर के पास तक आ गए थे जहां पांडव छुपकर रह रहे थे । धृष्टद्युम्न को यह देखकर बड़ा दुख हुआ कि राज कुमारी द्रोपदी को इस तरह से गरीबों की तरह रहना पड़ रहा है ।
लेकिन धृष्टद्युम्न को यह शक भी हुआ कि यह पांच व्यक्ति पांडव ही लगते हैं । जब धृष्टद्युम्न ने यह बात जाकर द्रुपद को बताई तो द्रुपद ने अपने पुरोहित को पांडवों के पास भेजा लेकिन युधिस्ठिर ने अपनी पहचान बताने से मना कर दिया । अगली बार द्रुपद ने पांचों भाइयों को दावत पर बुलाया और वहां जाकर युधिस्ठिर ने बताया कि वे सभी ब्राह्मण के भेष में पांडव ही हैं और जिसने स्वयंवर में प्रतियोगिता जीती थी वे अर्जुन हैं ।
द्रोपदी का विवाह
द्रुपद की तो खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा । लेकिन जब द्रुपद को पता चला कि द्रोपदी की शादी पांचो भाइयों के साथ होने वाली है तो शुरू में उन्होंने आपत्ति जताई । लेकिन जब युधिस्ठिर ने उन्हें पूरा वृतांत बताया तब द्रुपद ने अपने पुरोहितों के साथ एक बैठक बुलाई लेकिन उसमे भी निर्णय नहीं हो पाया । तभी अचानक वहां पर व्यास देव आ गए और द्रुपद ने उनकी पूजा करके उनका सत्कार किया । व्यास देव ने द्रुपद को सारा वृतांत बताया साथ ही उन्हें दिव्य दृष्टि भी दी जिससे वे द्रोपदी का पिछला जीवन देख सकें ।
इस प्रकार द्रुपद ने यह निर्णय लिया कि द्रोपदी की शादी पांचों पांडवों से ही की जानी चाहिए । पहले दिन द्रोपदी का विवाह युधिस्ठिर के साथ हुआ । दूसरे दिन भीम सेन के साथ विवाह हुआ, तीसरे दिन अर्जुन के साथ और चौथे अथवा पांचवे दिन क्रमशः नकुल और सहदेव के साथ विवाह हुआ । विवाह संपन्न होते ही द्रुपद ने पांडवों को कई अनमोल भेंटे दीं और भगवान श्री कृष्ण ने तो और भी अनुपम और कीमती उपहार भेजे । इसके बाद पांडव अपने वास्तविक भेष में आकर द्रुपद के महल में रहने लगे ।
जब पांडव अपने भेष में रहने लगे तो यह बात सीघ्र ही चारों और फैल गई कि पांडव अभी जीवित हैं और ब्रह्मण के भेष में स्वयंवर में वे सभी पांडव ही थे । सब राजाओं को यह बात सुनकर प्रसंतता हुई कि पांडव लक्षागृह से बच निकले थे लेकिन दुर्योधन एक ऐसा व्यक्ति था जो यह सुनकर निराशा में डूब गया था । दुर्योधन ने पूरे एक साल तक पांडवों की अपने मंत्री पुरोचन से लाक्षाग्रह मे प्रेम से सेवा करवाई थी ताकि समय आने पर वह उन्हें मार सके ।
जब विदुर को यह बात पता चली तो वह खुशी के मारे फूले नहीं समाए और तुरंत ही यह बात धृतराष्ट्र को बताने के लिए आ गए । तब धृतराष्ट्र ने पांडवों को हमेशा खुश रहने का आशीर्वाद दिया और कहा कि यह खबर सुनकर वे बहुत प्रसन्न हैं और फिर विदुर वहां से चले गए । दुर्योधन और कर्ण ने छुपकर यह बात सुन ली और वे धृतराष्ट्र से पूछने लगे कि वे पांडवों को आशीर्वाद क्यों दे रहे थे । धृतराष्ट्र ने कहा कि वे विदुर के सामने अच्छा बनने का प्रयत्न कर रहे थे लेकिन मन ही मन वे भी पांडवों को खत्म करना चाहते हैं।
धृतराष्ट्र ने कहा कि द्रुपद के साथ संधि हो जाने पर पांडव अब और भी अधिक बलशाली हो गए हैं । लेकिन दुर्योधन और कर्ण द्रुपद के राज्य पर आक्रमण करने के विषय में सोचने लगे थे । तब पितामह भीष्म और द्रोणाचार्य ने धृतराष्ट्र को समझाया था कि पांडवों से वैर लेना सही नहीं है इसलिए उन्हें सम्मान पूर्वक उनका राज्य दे देना चहिए ।
धृतराष्ट्र ने ऐसा ही किया और पांडवों को लाने ले लिए महात्मा विदुर को भेजा । विदुर अपने साथ उपहार लेकर पांडवों के पास गए थे और उन्हें हस्तिनापुर आने का निमंत्रण दे कर साथ ले आए थे । धृतराष्ट्र ने पांडवों का अच्छे से स्वागत किया था और युधिस्ठिर को बुलाकर कहा था कि पांडवों और कौरवों के बीच में किसी भी प्रकार का कोई झगड़ा न रहे इसलिए तुम हस्तिनापुर का आधा राज्य खंडावप्रस्त ले लो । पांडवों ने ऐसा ही किया और भगवान की आज्ञा पाकर खंडावप्रस्त में एक भव्य नगरी इंद्रपस्त का निर्माण किया । इंद्रप्रस्त की सोभा इंद्र के लोक स्वर्ग के जैसी ही थी ।
द्रोपदी के साथ पांचों भाइयों के संबंध
एक दिन नारद मुनि वहां विचरण करते हुए पहुंच गए और उन्होंने पांडवों से कुछ नियम और शर्तों का पालन करने को कहा ताकि द्रोपदी को लेकर पांडव भाइयों के बीच में मत भेद न हो । इसकी क्या जरूरत है ऐसा पूछने पर देवर्षि नारद ने पांडवों को एक कहानी सुनाई थी ।
नारद मुनि ने कहा कि हिरण्यकशिपु के वंश में दो सुन्द और उपसुन्द नाम के राक्षस हुए थे । दोनो राक्षसों में इतना प्रेम था कि वे एक दूसरे के बिना ना तो कुछ खाते थे और ना ही एक दूसरे के कभी अकेला छोड़ते थे । तीनो लोकों को जीतने के लिए दोनो भाइयों ने ब्रह्मा जी की तपस्या करना सुरु की और ब्रम्हा जी को प्रसन्न करके अमरता का वरदान मांगना चाहा लेकिन ब्रह्मा जी ने माना कर दिया ।
तब उन दोनो भाइयों ने वरदान मांगा कि हम दोनो की जब भी मृत्यु हो एक दूसरे के हाथों ही हो अन्यथा हमें कोई भी जीव ना मार पाए । ब्रह्मा जी ने यह वरदान उनको दे दिया । वरदान मिलने के बाद दोनो भाइयों ने स्वर्गलोक पर विजय प्राप्त कर ली थी और साथ ही समस्त यक्ष और दानवों को भी हरा दिया था । तीनो लोकों में इनको हराने वाला कोई नहीं था और ये पृथ्वी पर ब्रह्मऋषियों का सर्वनाश करने लगे थे । इसके बाद सभी ब्रह्मऋषि ब्रह्म लोक पहुंचे और उन्होंने ब्रह्मा जी से इस समस्या का निजात करने की गुजारिश की ।
ब्रह्मा जी ने इन दोनो भाइयों को मारने का उपाय करते हुए विश्वकर्मा जी को बुलाया । विश्वकर्मा जी से ब्रम्हा जी ने एक ऐसी अप्सरा का निर्माण करने को कहा था जो इतनी सुंदर हो कि किसी को भी लुभा सके । विश्वकर्मा जी ने इसी तरह की अप्सरा का निर्माण कर दिया और ब्रह्मा जी ने उस कन्या का नाम तिल्लोतमा रख दिया क्यूंकि संसार के सभी अनमोल रत्नों को तिल तिल लेकर उस अप्सरा का निर्माण हुआ था ।
दोनो भाई पूरी पृथ्वी को जीतकर विंध्याचल पर्वत पर आमोद प्रमोद करते हुए घूम रहे थे तभी ब्रह्मा जी ने तिल्लोत्मा को उनके पास भेज दिया । तिल्लोत्म का लक्ष्य था इन दोनो भाइयों में फूट डालना और उसने अपना काम अच्छे से कर दिया । दोनो भाई तिल्लोतम को देखकर इतने अंधे हो जाते हैं कि एक दूसरे से लड़ने लगते हैं । एक कहता है कि तिल्लोतमा उसकी पत्नी बनेगी तो दूसरा कहता है उसकी और इसी तरह आपस में वैर करके वह दोनो भाई एक दूसरे को मार डालते हैं ।
इस प्रकार का वृतांत सुनकर पांडव नारद जी की वाणी समझ जाते हैं और एक नियम बना लेते हैं । पांडव प्रतिज्ञा कर लेते हैं कि द्रोपदी एक निश्चित समय के लिए ही एक पांडव के साथ रहेगी और जब द्रोपदी किसी एक पांडव के साथ अकेली होगी तो कोई और पांडव वहां नहीं जायेगा । अगर ऐसा हुआ कि कोई पांडव द्रोपदी और किसी और पांडव के एकांत वास में प्रवेश करता है तो उस पांडव को 12 वर्षों के लिए वनवास करना होगा ।
एक दिन द्रोपदी और महाराज युधिस्ठिर एक साथ एकांत वास कर रहे थे और तभी एक ब्राह्मण अर्जुन से मदद मांगने आ गया । ब्राह्मण ने कहा कि उसकी गायों को कोई चुरा के ले जा रहा है और अर्जुन को छत्रिय होने के कारण इस ब्राह्मण की रक्षा करनी चाहिए । अर्जुन के अस्त्र शस्त्र महाराज युधिस्ठिर के कक्ष में रखे हुए थे जहां वे द्रोपदी के साथ एकांत वास कर रहे थे ।
अर्जुन धर्मसंकट में पड़ गए थे, जहां एक ओर ब्राह्मण की रक्षा करना उनका धर्म था तो दूसरी और प्रतिज्ञा का पालन करना भी । तब अर्जुन ने सोचा कि अगर ब्राह्मण श्राप दे देंगे तो पूरे राज्य को कष्ट भोगना होगा और अगर वे प्रतिज्ञा तोड़ते हैं तो केवल उनको ही 12 वर्षों के लिए वनवास जाना होगा ।
इस प्रकार विचार करके अर्जुन ने महाराज युधिस्ठिर के कक्ष से जाकर अपने अस्त्र वापिस ले लिए थे । प्रतिज्ञा तोड़ने पर अर्जुन को 12 वर्षों के लिए वनवास जाना पड़ा था । हालाकि महाराज युधिस्ठिर ने अर्जुन से कहा था कि अगर वे रुकना चाहें तो रुक सकते हैं और उन्हें वनवास जाने की कोई जरूरत नहीं है लेकिन अर्जुन नहीं माने और 12 वर्षों के लिए वन की और निकल पड़े ।
आगे की कहानी बताएंगे अगले पोस्ट में । अगली पोस्ट जल्द ही अपलोड होगी । पोस्ट की जानकारी पाने के लिए और इसी तरह की धार्मिक पोस्ट पड़ते रहने के लिए हमारा व्हाट्सएप ग्रुप ज्वाइन करें । ग्रुप ज्वाइन करने के लिए यहां क्लिक करें – WhatsappGroup ।