कलियुग का अंत होने से पहले दिखाई देंगे ये 6 लक्षण | पृथ्वी का अंत आते आते ऐसी हरकत करेंगे लोग!

शुरू करने से पहले मैं बताना चाहती हूँ कि जब भी भगवान की मृत्यु के विषय में चर्चा होती है तो वस्तुतः उसका अर्थ मृत्यु नहीं होता। भगवान अदृश्य होते हैं, कभी मरते नहीं और जब जब धर्म विलुप्त होता है तब उसकी रक्षा करने के लिए धरती पर अवतार लेते हैं। अब बात करते हैं आज के विषय की। ऐसा कहा जाता है कि जब भगवान कृष्ण की मृत्यु के पश्चात उनका दाह संस्कार हुआ तब उनके शरीर का एक अंग नहीं जला था। तो आइए इस वीडियो के माध्यम से जानते हैं कि क्या भगवान के शरीर का दाह संस्कार हुआ? यदि हाँ तो कौन सा अंग नहीं जला और क्यों? भगवान कृष्ण की लीलाएं उनके बचपन से ही बहुत रोचक रहीं हैं। उनकी मनमोहक छवि, उनके द्वारा की गई लीलाएं और उनके प्रति सबका प्रेम अतुलनीय है। भगवद गीता के अनुसार भगवान कृष्ण की मर्जी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता। अर्थात संसार में जो कुछ भी होता है वह केवल उनकी इच्छा से ही होता है।

उनकी इच्छा के बिना कुछ भी संभव नहीं। वे ही परमपिता परमात्मा हैं। महाभारत का युद्ध भी उनकी इच्छा से ही हुआ, जिसके माध्यम से उन्होंने धर्म का महत्व बताया और उन्होंने स्वयं भी धर्म का ही पक्ष लिया, क्योंकि कौरव अधर्म के पक्षपाती थे। भगवान कृष्ण ने दुर्योधन को बहुत समझाने का प्रयास किया, परन्तु दुर्योधन अपने हठ पर ही अड़ा रहा। तब महाभारत युद्ध के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं बचा था। महाभारत युद्ध के समय जब दुर्योधन का अंत हुआ तब उसकी माँ शोकाकुल हो उठीं और रणभूमि में जब वह पुत्रों की मृत्यु पर शोक व्यक्त करने पहुंची तब उन्होंने श्री कृष्ण को श्राप दिया कि ठीक 36 वर्षों पश्चात उनकी मृत्यु हो जायेगी क्योंकि उन्हें गलत फहमी थी कि उनके पुत्रों की मृत्यु भगवान कृष्ण के कारण ही हुई है। वास्तव में तो भगवान कृष्ण किसी श्राप के कारण नहीं अपितु अपनी इच्छा से ही संसार से अदृश्य हुए थे क्योंकि जो भी इस संसार में आता है उसकी देह का विनाश निश्चित है। भगवान नित्य लोक छोड़कर कैसे अपने लोक गए।

इसका वर्णन भागवत पुराण के 11वें स्कंध में मिलता है। मित्रों, यह तो आप जानते ही हैं कि भागवत पुराण शुकदेव गोस्वामी जी के द्वारा राजा परीक्षित को सुनाई गई थी। 11वें स्कंध में शुकदेव जी परीक्षित महाराज से कहते हैं कि भगवान कृष्ण ने विचार किया कि यदुवंश अभी भी पृथ्वी पर है और पूर्णतया मुझ पर आश्रित है। यदुवंश के लोग धन, जनबल, घोड़े आदि से बल शाली हैं और पृथ्वी पर अपनी मनमानी कर रहे हैं। यहां तक कि देवता भी उन्हें पराजित नहीं कर सकते। इसलिए मुझे यदुवंश के लोगों में आपस में कलह उत्पन्न करनी होगी। उसके पश्चात ही मैं अपने धाम वापस जाउंगा। ऐसा विचार करके भगवान ने एक लीला रचाई। आइये इसे विस्तार में जानते हैं। भगवान कृष्ण द्वारका नगरी के राजा थे। एक बार ऋषि विश्वामित्र, नारद मुनि और ऋषि दुर्वासा द्वारका नगरी पधारे। द्वारका में युवाओं का स्वभाव बहुत चंचल और उद्दंड था। एक बार कृष्ण पुत्र साम्ब समेत कुछ यदुवंश कुमारों को शरारत सूझी।

सामने स्त्री का रूप धारण किया और वे सभी तीनों ऋषियों के पास पहुंचे और साम्ब को गर्भवती महिला बताकर ऋषियों के साथ मजाक करने का दुस्साहस किया। ऋषियों ने भांप लिया कि उनके साथ मजाक हो रहा है। तब उन्होंने सांब को श्राप दिया कि वह ऐसे मूसल को जन्म देगा जिससे उसके कुल का नाश होगा। वास्तव में ऋषि मुनियों को भगवत् प्रेरणा के कारण क्रोध आया। अतः यह भगवान की ही लीला थी। इस प्रकार के महापुरुष भगवान की लीला में सहयोग करते हैं। इसलिए मृत्युलोक में निवास करके यहां के लोगों के समान ही व्यवहार करते हैं। उनका वास्तविक व्यवहार ऐसा नहीं होता। वे तो सदैव ही भगवान की भक्ति में लीन रहते हैं।

ऋषियों का श्राप सुनकर सभी कुमार घबरा गए। उन सबने साम्ब को स्त्री का रूप देने के लिए जो कृत्रिम पेट बनाया था, उसे फाड़कर देखा तो उसमें वास्तव में मूसल था। यह देख वे सभी पछताने लगे। उन्होंने इस पूरी घटना के विषय में उग्रसेन को बताया। उग्रसेन मथुरा के राजा और कंस के पिता थे। उन्होंने सभी कुमारों को उस मूसल का चूर्ण बनाकर उस चूर्ण और बचे हुए लोहे के टुकड़ों को समुद्र में फेंकने का आदेश दिया। सभी ने ऐसा ही किया। वह चूर्ण पानी के साथ बहकर किनारे पर आ गया और जो लोहे के टुकड़े बचे थे उसे एक मछली ने निगल लिया। कुछ दिन पश्चात यह चूर्ण रक्त के रूप में उगा जो एक बिना गांठ की घास होती है। एक बार समुद्र में कुछ मछुआरे मछलियां पकड़ने पहुंचे और उस मछली को भी पकड़ा जिसने लोहे के टुकड़े निगल लिए थे। उस मछली के पेट से निकले लोहे के टुकड़े को एक बहेलिए ने अपने बाण की नोक पर लगा लिया। एक बार ब्रह्माजी अपने पुत्रों और देवताओं के साथ द्वारका नगरी पधारे और भगवान से प्रार्थना की कि यदि।

अब वे चाहें तो अपने धाम पधार सकते हैं। तब श्रीकृष्ण ने कहा कि मैं निश्चय कर चुका हूं कि यदुवंशियों का नाश होते ही मैं परम धाम के लिए प्रस्थान करूंगा। तब सभी ने भगवान को प्रणाम किया और अपने धाम की ओर चले गए। उन सबके जाने के पश्चात द्वारका में कुछ दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं उत्पात और अपशगुन होने लगे। यह देख भगवान ने बच्चों, स्त्रियों और वृद्धों को शंखधार क्षेत्र और अन्य सभी को प्रभास क्षेत्र में जाने का आदेश दिया, जहां से सरस्वती नदी बहकर समुद्र में मिलती है। प्रभास क्षेत्र में पहुंचकर सभी ने भगवान के आदेशानुसार पूजा अर्चना एवं भक्ति पूरी श्रद्धा से किए परंतु वे सभी मैरियट नामक मदिरा का पान करने लगे। इस मत का स्वाद तो मीठा होता है परंतु यह बुद्धि भ्रष्ट करने वाला है। इसका सेवन करते ही सभी यदुवंशियों की बुद्धि भ्रष्ट होने लगी और सभी आपस में ही झगड़ने लगे। इस लड़ाई ने इतना भयंकर रूप ले लिया कि सभी यदुवंशी मृत्यु को प्राप्त हुए। इस प्रकार भगवान कृष्ण का उद्देश्य पूर्ण हुआ।

इस घटना के पश्चात बलरामजी नदी के तट पर चिंतन में लीन हो गए और ध्यान में रहकर ही भौतिक शरीर को त्याग दिया। कुछ समय पश्चात ही भगवान कृष्ण एक पीपल के पेड़ के नीचे बैठे और सभी दिशाओं से अंधकार को नष्ट कर उन्हें प्रकाशमान करने लगे। उस समय भगवान के बैठने की अवस्था कुछ ऐसी थी कि वे अपनी दाई जांघ पर बायां चरण रखे हुए थे। उनके चरण कमलों की आभा रक्त के समान प्रतीत हो रही थी। एक बहेलिए ने भगवान के चरणों को दूर से देखा जो उसे हिरण के मुख के समान नजर आए। यह वही बहेलिया था जिसने मछली के पेट से निकले लोहे को अपने बाण में लगा लिया था। उसने हिरन समझकर भगवान की देह को बाण से भेद दिया। इसके पश्चात भगवान अपने शरीर समेत ही भगवद् धाम के लिए प्रस्थान कर गए। इस प्रकार ऋषियों द्वारा दिए गए श्राप के कारण यदुवंश का नाश हुआ और गांधारी के द्वारा दिया गया श्राप भी पूरा हुआ क्योंकि महाभारत के पश्चात भगवान कृष्ण के 36 वर्ष इस धरती पर पूर्ण हो चुके थे।

कई बार ऐसा कहा जाता है कि भगवान की देह का दाह संस्कार किया गया परंतु वास्तव में ऐसा नहीं हुआ था। उनकी देह दिव्य थी नाकि पंचतत्वों से निर्मित। अनेक मान्यताओं के अनुसार पांडवों द्वारा उनके शरीर का अंतिम संस्कार किया गया। जब उनकी पूरी देह जल गई परंतु हृदय जलकर नष्ट नहीं हुआ और अंत तक जलता रहा तब उनके हृदय को जल में प्रवाहित किया गया। उनकी देह का यह हिस्सा राजा इंद्रियों को प्राप्त हुआ। राजा इंद्र भगवान जगन्नाथ के भक्त थे। उन्होंने भगवान कृष्ण का हृदय भगवान जगन्नाथ की प्रतिमा में स्थापित कर दिया। तो दोस्तों आपको इस विषय में जो भी ज्ञान है उसे कॉमेंट बॉक्स में लिखकर हम तक पहुंचाएं। मिलते हैं आपसे अगली कड़ी में। जय श्री कृष्णा।

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